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वि॒द्मा स॑खि॒त्वमु॒त शू॑र भो॒ज्य१॒॑मा ते॒ ता व॑ज्रिन्नीमहे । उ॒तो स॑मस्मि॒न्ना शि॑शीहि नो वसो॒ वाजे॑ सुशिप्र॒ गोम॑ति ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vidmā sakhitvam uta śūra bhojyam ā te tā vajrinn īmahe | uto samasminn ā śiśīhi no vaso vāje suśipra gomati ||

पद पाठ

वि॒द्म । स॒खि॒ऽत्वम् । उ॒त । शू॒र॒ । भो॒ज्य॑म् । आ । ते॒ । ता । व॒ज्रि॒न् । ई॒म॒हे॒ । उ॒तो इति॑ । स॒म॒स्मि॒न् । आ । शि॒शी॒हि॒ । नः॒ । व॒सो॒ इति॑ । वाजे॑ । सु॒ऽशि॒प्र॒ । गोऽम॑ति ॥ ८.२१.८

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:21» मन्त्र:8 | अष्टक:6» अध्याय:2» वर्ग:2» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:4» मन्त्र:8


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शिव शंकर शर्मा

इससे प्रार्थना दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (शूर) हे महावीर ! (उत) और (सखित्वम्+विद्म) तेरी मैत्री हम जानते हैं। (वज्रिन्) हे दण्डधर ! (भोज्यम्) तैने जीवों के लिये जो नाना भोज्य पदार्थ दिये हैं, उनको भी हम जानते हैं। हम (ते) तेरे (ता) उस सखित्व और भोज्य पदार्थ को (आ) सब प्रकार (ई+महे) चाहते हैं। (उतो) और (वसो) हे वासक ! (सुशिप्र) हे सुशिष्टजनपूरक ! (नः) हम लोगों को (गोमति) गवादियुक्त (समस्मिन्+वाजे) समस्त धन और विज्ञान में (आ+शिशीहि) स्थापित कर ॥८॥
भावार्थभाषाः - उसने हम जीवों के भोग के लिये सहस्रशः पदार्थ दिये हैं, तथापि हम जीव विकल ही रहते हैं। इसका कारण अनुद्योग है ॥८॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शूर) हे शत्रुसंहारक सेनापते ! (ते) आपके (सखित्वम्) मैत्रीभाव को (उत) और (भोज्यम्) भोगार्ह दातव्य भाग को (आविद्म) हम जानते हैं (वज्रिन्) हे वज्रशक्तिवाले ! (ता) उन दोनों की (ईमहे) याचना करते हैं (वसो) हे सबके ऊपर प्रभाव डालनेवाले (सुशिप्र) सुन्दर शिरस्त्राणवाले सेनापते ! (नः) हमको (समस्मिन्) सब प्रकार के (गोमति) तेजस्वी पदार्थों (उतो) और (वाजे) बलों में (आशिशीहि) तीक्ष्ण करें ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि परमात्मा के प्रभाव को जानकर सब प्रजाएँ अनेक शक्ति प्राप्त करने के लिये उसकी प्रार्थना करती हैं, जिससे वह स्वयं भी अपने विघ्नों को दूर कर सकें और अपने स्वामी की भी सहायता करने में समर्थ हों ॥८॥
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शिव शंकर शर्मा

प्रार्थनां दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे शूर ! तव सखित्वम्। वयम्। विद्म=जानीमः। उत=अपि च। भोज्यञ्च विद्म। हे वज्रिन् ! ते=त्वदीये। ता=ते सखित्वभोज्ये। आ=आभिमुख्येन। वयमीमहे=याचामहे। हे वसो ! हे सुशिप्र ! गोमति=गवादियुक्ते। समस्मिन्=सर्वस्मिन्। वाजे= अन्ने विज्ञाने च। नोऽस्मान्। आशिशीहि=स्थापय ॥८॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (शूर) हे शत्रुहिंसक ! (ते) तव (सखित्वम्) मैत्रीम् (उत) अथ (भोज्यम्) भोगार्हदेयम् (आविद्म) सम्यक् जानीमः (वज्रिन्) हे वज्रिन् ! (ता) ते (ईमहे) याचामहे (वसो) हे वासक (सुशिप्र) शोभनशिरस्त्र ! (नः) अस्मान् (समस्मिन्) सर्वस्मिन् (गोमति) तेजस्विनि पदार्थे (उतो) अथ च (वाजे) बलेऽपि (आशिशीहि) तीक्ष्णीकुरु ॥८॥